उद्योगपति बनाम किसान और श्रमिक : असमानता की सच्चाई
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उद्योगपति बनाम किसान और श्रमिक : असमानता की सच्चाई
उद्योगपति के उत्पाद को हमेशा हमी भाव मिलता है। इसलिए वे अमीर बनते हैं और अमीरी की वजह से समाज में उन्हें प्रतिष्ठा मिलती है। उन्हें कर्तृत्ववान माना जाता है और इसमें कोई संदेह नहीं कि वे कर्तृत्ववान हैं।
लेकिन यह भी उतना ही सच है कि वे अमीर बनते हैं तो वह श्रमिकों की मेहनत और किसानों की उपज पर ही। केवल पूंजी लगाकर और मुनाफा कमाकर अमीर बनना जितना आसान है, उतना ही कठिन है दिन-रात पसीना बहाकर असली उत्पाद तैयार करना।
फिर भी विडंबना यह है कि मेहनत करने वाले श्रमिकों को उनके पसीने का उचित दाम नहीं मिलता और वे गरीब ही रहते हैं। गरीब होने के कारण उन्हें न तो समाज में प्रतिष्ठा मिलती है और न ही कर्तृत्ववान माना जाता है।
सच्चाई यह है कि देश उद्योगपतियों के लगाए गए पूंजी से नहीं, बल्कि श्रमिकों और किसानों के पसीने से चलता है। अगर कोई इंसान दिन-रात मेहनत करके भी गरीब ही रह जाए, तो दोष उस इंसान का नहीं बल्कि व्यवस्था का है।
यही हाल किसानों का है। वे सबके लिए भोजन उगाते हैं। लेकिन उनके अन्न को हमी भाव नहीं मिलता। इसलिए वे भी गरीब ही रह जाते हैं और उन्हें भी समाज में कोई विशेष प्रतिष्ठा नहीं मिलती।
अक्सर कहा जाता है कि किसान और श्रमिक कम पढ़े-लिखे हैं। लेकिन असली शिक्षा केवल स्कूल-कॉलेज की डिग्री नहीं होती। खेती का ज्ञान भी शिक्षा है, उत्पादन का अनुभव भी शिक्षा है। फर्क सिर्फ इतना है कि उसे प्रमाणपत्र नहीं मिलता।
देश की गरीबी का मूल कारण यही है— श्रमिकों और किसानों की शारीरिक और बौद्धिक मेहनत का उचित सम्मान और उचित दाम न देना। जब तक अर्थ वितरण प्रणाली में सुधार नहीं होगा, तब तक गरीबी हटाना संभव नहीं है।
✍️ लेखक : अरुण पांगारकर
आदर्श अर्थ वितरण प्रणाली आंदोलन तथा गरीबी हटाओ आंदोलन
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