✍️ अंततः गंगा अवतरित हुई; शिव पिंडी पर रक्ताभिषेक पवित्र हुआ;लोकप्रतिनिधियों के भगीरथ प्रयासों को मिली सफलता
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✍️ अंततः गंगा अवतरित हुई; शिव पिंडी पर रक्ताभिषेक पवित्र हुआ
लोकप्रतिनिधियों के भगीरथ प्रयासों को मिली सफलता
पूर नहरों के माध्यम से सिन्नर के पूर्वी हिस्से के सूखाग्रस्त क्षेत्र में अंततः गंगा अवतरित हुई। कल-कल बहती जलधाराओं ने भूमि को पवित्र कर दिया। मिट्टी का कण-कण और उस मिट्टी पर रहने वाला मन-मन रोमांचित हो उठा। कई दशकों से चली आ रही आम जनता और लोक-निर्वाचित प्रतिनिधियों के भगीरथ प्रयासों को सफलता मिली। बहने वाली प्रत्येक जलधारा में रक्ताभिषेक में बहे त्याग के बूँदों की अनुभूति हुई। 22 साल पहले की वह पूरी घटना कालचक्र के विपरीत दिशा में घूमकर ज्यों की त्यों आँखों के सामने अवतरित हो गई। वे मंत्रमुग्ध करने वाले दिन याद आए और आँखें खुशी के आँसुओं से भर गईं।
संघर्ष का इतिहास और साक्षी पीढ़ी
वास्तव में, सिन्नर के पूर्वी हिस्से का सूखा मिटाने के लिए 1972 से कई दिग्गजों सहित आम लोगों ने बहुत परिश्रम किया है। इसी जल संघर्ष से हुए सिन्नर के दंगे, उस दंगे में जलाए गए न्यायालय – ये सभी घटनाएँ आज इन जलधाराओं द्वारा स्मृतिधाराओं के रूप में प्रवाहित हो रही हैं। वैसे तो हमारी पीढ़ी 80 के दशक की है, लेकिन ईस्वी सन 2002 के उत्तरार्ध में हमारी पीढ़ी द्वारा शुरू किए गए जल आंदोलन के कारण तत्कालीन कई बुजुर्गों, उन आंदोलनों में भाग लेने वाले पुराने आंदोलनकारियों से बहुत करीब से संपर्क हुआ और जल आंदोलन का हमसे पहले का इतिहास भी पूरी तरह ज्ञात हुआ। पानी के मुद्दे को काफी हद तक हल करने में सफल रहे वर्तमान लोक-निर्वाचित प्रतिनिधियों के अभूतपूर्व योगदान को हम निश्चित रूप से कभी नहीं भूल सकते। लेकिन उनका स्मरण रखते हुए, और उनका ऋण व्यक्त करते हुए, हमें इससे पहले के संघर्षों और योद्धाओं को भी नहीं भूलना चाहिए। यह उन पर घोर अन्याय होगा।
शिव पिंडी पर रक्ताभिषेक – संघर्ष का प्रतीक
मुझे आज भी 2002 के उत्तरार्ध का वह क्रांतिकारी दिन, नहीं-नहीं, वह क्रांतिकारी रात ज्यों की त्यों याद है। रात के लगभग नौ बजे होंगे। मेरे खेत में, चाँदनी की शीतल रोशनी में, मैं अकेला एकांत में प्रकृति का आनंद लेते हुए चिंतन कर रहा था। तभी मेरे मित्र स्वर्गीय नारायण तुकाराम पगार और श्री अण्णासाहेब जयराम निरगुडे मुझसे मिलने आए। वे पानी के मुद्दे पर रचनात्मक विचार-विमर्श के लिए मेरे पास आए थे। नारायण ने धीरे से विषय उठाया। नारायण ने अपने शब्दों में अन्ना के मन की तड़प मेरे सामने व्यक्त की। विषय बेशक पानी के मुद्दे का था। उस रात हम तीनों के बीच काफी देर तक गहन विचार-मंथन हुआ और उसी क्षण आंदोलन का बिगुल फूँक दिया गया। दूसरे ही दिन गाँव के अन्य मित्रों, बुजुर्गों को इकट्ठा कर बैठक का आयोजन किया गया। आंदोलन की दिशा तय की गई। आंदोलन के प्रचार और प्रसार के लिए रोजाना पंचक्रोशी के अलग-अलग गाँवों का दौरा किया जाने लगा। आंदोलन के लिए धन जुटाया जाने लगा। शेतकरी विकास संघर्ष समिति की स्थापना हुई। एक दिन सब लोग ज्येष्ठ समाजसेवक अण्णासाहेब हजारे से उनके रालेगणसिद्धि गाँव जाकर मिले। अन्ना ने अमूल्य मार्गदर्शन किया। अन्ना से प्रेरणा लेकर गाँव लौटे। कई उत्साही युवा कार्यकर्ता आंदोलन में शामिल होने लगे। पुराने आंदोलनों में पानी के मुद्दे पर समाधान की जानकारी रखने वाले अनुभवी बुजुर्ग हमें मार्गदर्शन करने लगे। आंदोलन को धार देने के लिए उत्साही कार्यकर्ताओं ने शिव पिंडी पर रक्ताभिषेक करके शिवशंभो शंकर को आह्वान करने का निश्चय किया। संजय कलकत्ते नाम का मित्र नया धारदार ब्लेड लगा हुआ उस्तरा लेकर आया। शनि मंदिर के सामने स्थित शिव पिंडी के चारों ओर सब लोग जमा हुए। शिव पिंडी पर बाएँ हाथ की तर्जनी रखकर, आँखें बंद करके, "हर हर महादेव" की गर्जना करते हुए, मन ही मन देवाधि देव महादेव से प्रार्थना की, "हमारा पानी का मुद्दा हल करो। उस प्रश्न को हल करने के लिए हमें बल दो!" और खटाखट तर्जनी पर उस्तरे के वार किए गए। रक्त की धाराएँ शिव पिंडी पर बह निकलीं। बेशक, समाज इस ध्येय-उन्मुख युवाओं के काल के प्रवाह में विस्मृत हुए इस इतिहास को थोड़े ही समय में भूल गया होगा, लेकिन रक्त की उन वेदनामय धाराओं ने जलधाराओं के उस 'पागल सुख-स्वप्न' को हमें, युवाओं को, कभी नहीं भूलने दिया।
जनआंदोलन की राजधानी मुंबई
1 मई 2003 – महाराष्ट्र दिवस पर आज़ाद मैदान में आमरण अनशन शुरू हुआ। भूख और प्यास से व्याकुल कार्यकर्ताओं की आँखों में ज़िद का ज्वालामुखी धधक रहा था। उत्साह के जोश में कई युवाओं ने अनशन के लिए नाम तो दिए, लेकिन अनशन का कष्ट सहन नहीं हुआ। कसम खाकर आत्मबल से मजबूत हुए कट्टर कार्यकर्ता अनशन की पीड़ा सहते हुए वहीं पड़े रहे, लेकिन कुछ कार्यकर्ताओं को भूख सहन नहीं हुई। अक्षरशः कुछ लोगों ने शौचालय में जाकर कोरके (सूखी रोटी), पाव खाए। इतनी भीषण अवस्था हो गई थी। यथासमय मंत्रालय से गाड़ी आई। आंदोलनकारी-प्रतिनिधियों को लेकर गाड़ी मंत्रालय गई। तत्कालीन सिंचाई मंत्री श्री बाळासाहेब थोरात से मुलाकात हुई। उन्होंने पूछा कि पानी का मुद्दा कैसे हल किया जाएगा? इसके लिए विकल्प पूछे। वह बेशक अपेक्षित था। उसके लिए पुराने अनुभवी बुजुर्गों ने हमारा गृहकार्य पहले ही पुख्ता कर लिया था (जो आज यह साकार हुआ सुख-स्वप्न देखने के लिए जीवित नहीं हैं)। उन्होंने सुझाया हुआ रामबाण विकल्प (जो आज भी आधा ही उतरा है) वह विकल्प हमने लिखित रूप में प्रस्तुत किया। वह विकल्प यह था:- बारहमासी पानी के लिए:- वैतरणा, दारणा, कडवा इस क्रम से बांध परियोजनाओं का पानी देव नदी में छोड़कर नहरों के माध्यम से उसे पूर्वी हिस्से में लाया जाए। एक और दूसरा विकल्प भी सुझाया गया था:- भोजापुर बांध के पानी में सिन्नर तालुका का हिस्सा बढ़ाया जाए। मंत्री ने निवेदन लेकर अनशन समाप्त करवाया। उसके दो दिन बाद ही तत्कालीन विपक्ष के नेता श्री नारायण राणे ने वावी में पानी परिषद आयोजित की। उन्होंने जनता से आह्वान किया, "मुझे फिर से मुख्यमंत्री बनाओ। मौजूदा विधायकों को फिर से विधायक बनाओ। तुम्हारा पानी का मुद्दा हल हो गया समझो। आंदोलन करने की ज़रूरत नहीं है।"
सिंचाई मंत्री ने हमारे आंदोलन का संज्ञान लिया था। लेकिन जल्द से जल्द पानी का मुद्दा हल होने के लिए बीच-बीच में छोटे-मोटे फॉलो-अप आंदोलन जारी रहना ज़रूरी था। लेकिन लोगों ने साफ कह दिया कि पानी का मुद्दा विधायक जी (आमदार साहेब) हल करेंगे। आंदोलन करने की ज़रूरत नहीं है। तब हम लोगों से कह रहे थे कि “पानी का मुद्दा तो विधायक जी ही हल करेंगे। वह उनका ही काम है। हमने उन्हें उसी के लिए चुना है। लेकिन पानी का मुद्दा जल्द से जल्द हल होने के लिए उनके हाथों को मजबूत करना हमारा काम है। जन आंदोलन के माध्यम से सरकार पर दबाव बढ़ेगा और विधायक जी का काम आसान हो जाएगा। विपक्ष में बैठे विधायकों के लिए काम करना कठिन होता है। इसके अलावा, सरकारी पक्ष में होने पर भी सरकार के भीतर कई आंतरिक विरोधी होते हैं। इसलिए जनता का दबाव आवश्यक है।” लेकिन लोगों ने नहीं सुना, जिसका परिणाम यह हुआ कि जो काम अधिकतम पाँच साल में होना चाहिए था, उसके लिए बीस साल से ज़्यादा का इंतजार करना पड़ा। इसके अलावा, योजना पूरी तरह से सत्य में नहीं उतरी है। अधूरी ही है। हमें पूर नहरों पर ही संतोष करना पड़ा है। इसके अलावा, जनता के चंदे से काम करने पड़ रहे हैं। कोई बात नहीं। ‘गिलास आधा खाली है, इसकी तुलना में गिलास आधा भरा हुआ है’ यह दृष्टिकोण कभी भी उचित है!
बेशक, लोगों ने साथ छोड़ दिया हो, लेकिन शंभू महादेवा ने हमें हमेशा साथ दिया। उनकी प्रेरणा से हम लड़ते रहे। हमारे फॉलो-अप पत्र-व्यवहार लगातार जारी थे। जिन पत्रों का जवाब नहीं मिलता था, उन पत्रों का जवाब हम सूचना के अधिकार (माहिती अधिकार) से प्राप्त करते थे। लड़ाई जारी थी महादेवा को स्मरण करके!
विधानसभा उम्मीदवारी: जल आंदोलन का ही हिस्सा
ईस्वी सन 2009 में जल आंदोलन के युवाओं से विचार-विमर्श करके मैंने विधानसभा की उम्मीदवारी की थी। उथले विचारकों के लिए इसके पीछे का उद्देश्य समझना संभव नहीं था। लेकिन स्थापित लोगों को तो उम्मीदवारी का संज्ञान लेना ही पड़ा। क्योंकि कड़े मुकाबले में एक-एक वोट भी महत्वपूर्ण था। पानी का मुद्दा रेखांकित हुआ। “इससे पहले के चुनाव पानी का मुद्दा हल किया जाएगा, इस पूंजी पर लड़े गए; लेकिन इसके बाद के चुनाव पानी का मुद्दा हल करके दिखाया, इस पूंजी पर लड़े जाएँगे” ऐसे स्पष्ट संकेत मिले।
पानी का मुद्दा लंबे समय तक लंबित रहने के पीछे पुराने जानकारों द्वारा किया गया एक मार्मिक विश्लेषण: अनावश्यक सत्ता परिवर्तन:-
सिन्नर की जनता ने काम करने वाले लोकप्रतिनिधियों का साथ देने के बजाय, ठीक समस्या हल होने की दहलीज पर होते हुए भी उन्हें सत्ता से नीचे खींच लिया।
सेज (SEZ) आंदोलन में चर्चित पानी का मुद्दा
ईस्वी सन 2010 का साल सेज (SEZ) अर्थात Special Economic Zone आंदोलन से चर्चित रहा। जापान कॉरिडोर नामक कंपनी परियोजना के लिए पूर्वी हिस्से की सभी ज़मीनें अधिग्रहित होने वाली थीं। हमने युवाओं ने उस समय सेज का प्रचंड विरोध किया। रोजाना एक गाँव इस हिसाब से हर गाँव के ग्रामीणों के आत्मदाह के चेतावनी पत्र हमने केंद्र सरकार तक पहुँचाए। अंतिम धक्का के रूप में सिन्नर तहसील कार्यालय के सामने आमरण अनशन शुरू किया। सरकारी पक्ष ने सेज के पक्ष में तर्क दिया, "आपका क्षेत्र सूखाग्रस्त है। पानी की कमी के कारण खेती नहीं होती है। सेज के माध्यम से आपके पास उद्योग-धंधे आएँगे। आपके लोगों को काम मिलेगा और बेरोजगारी दूर होगी। इसके अलावा, ज़मीन के मुआवजे में जो पैसा मिलेगा, उस पैसे से दूसरी जगह ज़मीनें खरीदी जा सकती हैं।" जवाब में आंदोलनकारियों द्वारा किया गया तर्क- "उद्योग-धंधों के माध्यम से जनसंख्या (लोक वसाहत) बढ़ेगी। इस जनसंख्या और उद्योग-धंधों के लिए भी अतिरिक्त पानी की आपूर्ति की योजना बनानी पड़ेगी। तो उसी सिस्टम से हमारी खेती के लिए पानी दिया जाए। खेती के लिए पानी उपलब्ध हुआ तो हमारे क्षेत्र की बेरोजगारी 100% हट जाएगी। आप हमारी ज़मीनें सरकारी भाव पर लेने वाले हैं। सरकारी भाव पर ज़मीनें केवल सरकार को ही मिल सकती हैं, किसानों को नहीं।" यह तर्क बिल्कुल फिट बैठा। "यदि किसानों का विरोध होगा तो हम जबरदस्ती सेज नहीं थोपेंगे" ऐसी गारंटी देते हुए सरकार ने आंदोलन समाप्त करवाया। उस समय सेज परियोजना लागू करने के लिए लोकप्रतिनिधि अनुकूल थे। कोई बात नहीं।
अंततः गंगा अवतरित हुई
अंततः शंभो महादेवा ने इस भूमि की करुण पुकार को प्रतिसाद दिया। जनता का, कार्यकर्ताओं का और लोकप्रतिनिधियों का यह सामूहिक संघर्ष आखिरकार पवित्र फलित तक पहुँचा। रक्त से उपजी यह जलधारा आज सिन्नर की भूमि को सुजलाम सुफलाम किए बिना नहीं रहेगी।
भगवान के घर देर है; अंधेर नहीं!
इस भूमि के संघर्ष का प्रत्येक बूँद आखिरकार जलधारा में विलीन हुआ – और यही सच्ची पवित्रता है।
सभी जीवित और दिवंगत कार्यकर्ताओं को, तथा आज भी पानी के प्रवाह के लिए दिन-रात प्रयासरत सभी को –
मनःपूर्वक वंदन!
आपका अरुण रामचंद्र पांगारकर
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