भारतीय व्यक्ति का जीवन उद्देश्यकेवल संपत्ति का संचय?
<h2>भारतीय व्यक्ति का जीवन उद्देश्य: केवल संपत्ति का संचय?</h2>
<p>भारतीय समाज में एक विचित्र लेकिन सच्ची प्रवृत्ति तेजी से बढ़ रही है – <strong>केवल अपने लिए अधिक से अधिक संपत्ति एकत्र करना ही जीवन का उद्देश्य</strong> मान लिया गया है। इस सोच के कारण जीवन में सेवा, परोपकार, सहयोग, निःस्वार्थता जैसे मूल्यों का क्षय हो रहा है।</p>
<p>आज कोई भी कार्य <strong>सेवाभाव</strong> से नहीं बल्कि <strong>लूटभाव</strong> से किया जा रहा है। व्यवसायी, कर्मचारी, दुकानदार, बिल्डर – अधिकतर लोग <strong>ईमानदार सेवा</strong> के बजाय ग्राहक या जनता की जरूरतों को लाभ कमाने का साधन मानते हैं।</p>
<h3>प्रचलित शिक्षा व्यवस्था क्या सिखा रही है?</h3>
<p>विद्यालयों और कॉलेजों की शिक्षा प्रणाली से यह अपेक्षा होती है कि वह छात्रों में सामाजिक जिम्मेदारी, सेवाभाव, नैतिकता जैसे मूल्य विकसित करेगी। लेकिन आज <strong>शिक्षा का अर्थ केवल नौकरी पाना</strong>, और नौकरी का अर्थ <strong>केवल पैसा कमाना</strong> बन गया है। इसका अंतिम उद्देश्य संपत्ति का संचय ही रह गया है।</p>
<p>इस मानसिकता के कारण <strong>समाजसेवा, उच्च आदर्श, देशसेवा, सादगी, ईमानदारी</strong> जैसे विचार हाशिये पर चले गए हैं। यह सोच माता-पिता, शिक्षक और छात्रों में भी धीरे-धीरे गहराई से बस गई है।</p>
<h3>इस मानसिकता के दुष्परिणाम</h3>
<ul>
<li>सामाजिक असमानता बढ़ती है – अमीर और अमीर, गरीब और गरीब बनता है।</li>
<li>किसी भी काम में गुणवत्ता और सच्चाई नहीं रहती।</li>
<li>भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है।</li>
<li>सेवा क्षेत्र (जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा, प्रशासन) में ईमानदारी समाप्त होती है।</li>
</ul>
<h3>समाधान क्या हो सकता है?</h3>
<p>समाज को <strong>“अपने लिए नहीं, समाज के लिए”</strong> यह भावना फिर से जागृत करनी होगी। इसके लिए –</p>
<ul>
<li>हर व्यक्ति को अपने कार्य में सेवा का दृष्टिकोण रखना चाहिए।</li>
<li>माता-पिता को बच्चों में नैतिक शिक्षा का बीज बोना चाहिए।</li>
<li>शिक्षकों को केवल पाठ्यपुस्तकें ही नहीं, बल्कि सामाजिक दृष्टिकोण भी सिखाना चाहिए।</li>
<li>धर्मगुरु और सामाजिक कार्यकर्ताओं को आत्मविश्लेषण करना चाहिए।</li>
</ul>
<p><strong>संपत्ति अर्जित करने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन वह संपत्ति कैसे अर्जित की गई है और वह समाज के लिए कितनी उपयोगी है – इसका विवेक आवश्यक है।</strong></p>
<p><em>लेखक: अरुण रामचंद्र पांगारकर</em><br>
<em>प्रणेता – आदर्श अर्थ वितरण प्रणाली आंदोलन</em></p>
Labels: भारतीय जनमानस
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