कागज़ी सच बनाम वास्तविकता
कागज़ी सच बनाम वास्तविकता
बनावटी साक्ष्यों के ख़िलाफ़ — सत्य के लिए जन–आह्वान
केवल कागज़ देखकर किया गया न्याय, सच्चा न्याय नहीं हो सकता। इंसान की वर्तमान जीवन–स्थितियों की जड़ में जाकर वास्तविक सच खोजना ज़रूरी है, क्योंकि अक्सर कागज़ी विवरण और ज़मीनी हक़ीक़त में बड़ा अंतर होता है।
समस्या क्या है?
- कागज़–निर्भर निर्णय: एक बार रिकॉर्ड बन गया तो वही अंतिम सत्य मान लिया जाता है—जबकि वास्तविकता अलग हो सकती है।
- बनावटी साक्ष्य: कुछ लोग झूठे/बनावटी दस्तावेज़ बनाते हैं और असली हक़दारों का अधिकार कुचल जाता है।
- कागज़ी अमीरी–गरीबी की विसंगतियाँ: कोई कागज़ पर गरीब दिखता है पर वास्तव में संपन्न होता है; कोई कागज़ पर संपन्न दिखता है पर असल में कर्ज़, बीमारी, बेरोज़गारी से जूझता है।
- रिकॉर्ड में असंगति: अलग–अलग दफ़्तरों/पीढ़ियों की प्रविष्टियाँ भिन्न होने से न्यायिक निर्णय भटक सकते हैं।
वास्तविक सच खोजने के उपाय
- मैदान–आधारित सत्यापन: कागज़ के साथ अनिवार्य फील्ड सर्वे व परिस्थिति–जाँच हो—स्थानीय अधिकारी/प्रशिक्षित सामाजिक कार्यकर्ता ज़मीनी निरीक्षण करें।
- डिजिटल पारदर्शिता: भूमि, संपत्ति, आय–व्यवहार, लाभार्थी आदि का एकीकृत डिजिटल रजिस्टर; छेड़छाड़–रोधी लॉगिंग (जैसे हेशिंग/ब्लॉकचेन) से फर्जीवाड़ा कठिन बने।
- स्वतंत्र “सत्य–सम्परीक्षण” संस्थान: तेज, निष्पक्ष जाँच–इकाई जो रिकॉर्ड की पुष्टि करे और समय–सीमा में रिपोर्ट दे।
- कठोर दंड व जवाबदेही: झूठे दस्तावेज़ बनाने/जम कराने वालों पर सख़्त दंड; संबंधित ज़िम्मेदार अधिकारियों की भी जवाबदेही तय हो।
- त्वरित पुनरावलोकन व शिकायत निवारण: सरल ऑनलाइन पोर्टल, मोबाइल टीम, OTP/बायोमेट्रिक–आधारित री–वेरिफ़िकेशन जिससे असली हक़दार शीघ्र न्याय पाए।
- समावेशी नीति: जिन गरीबों के पास कागज़ नहीं हैं, उन्हें अस्थायी राहत + बाद में सत्यापन के बाद स्थायी लाभ की व्यवस्था।
यह क्यों आवश्यक है?
न्याय के दो पहिए हैं—दस्तावेज़ी साक्ष्य और ज़मीनी सच। केवल एक पर निर्भर रहने से ईमानदार लोग पीड़ित होते हैं और समाज में असमानता बढ़ती है। सत्य–सम्परीक्षण व्यवस्था से असली लाभार्थी झूठे कागज़ों की चक्की में पिसने से बचेगा और हक़ सही हाथों तक पहुँचेगा।
लेखक,
अरुण रामचन्द्र पांगारकर
प्रवर्तक,
आदर्श धन वितरण प्रणाली तथा गरीबी हटाओ आंदोलन
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